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जमीं से उठी है

ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है 

ये आग इश्क़ की यारब किधर से उतरी है 


उतरती नज्द में कब थी सवारी-ए-लैला 

टुक आह क़ैस के जज़्ब-ए-असर से उतरी है 


नहीं नसीम-ए-बहारी ये है परी कोई 

उड़न-खटोले को ठहरा जो फ़र से उतरी है 


न जान इस को शब-ए-मह ये चाँदनी-ख़ानम 

कमंद-ए-नूर पे औज-ए-क़मर से उतरी है 


चलो न देखें तो कहते हैं दश्त-ए-वहशत में 

जुनूँ की फ़ौज बड़े कर्र-ओ-फ़र्र से उतरी है 


नहीं ये इश्क़ तजल्ली है हक़-तआला की 

जो राह ज़ीना-ए-बाम-ए-नज़र से उतरी है 


लिबास-ए-आह में लिखने के वास्ते 'इंशा' 

क़लम दवात तुझे अर्श पर से उतरी है

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